
“अंग्रेजों से लड़ना काफी मुश्किल काम था, हमारी सरकार से लड़ना थोड़ा और मुश्किल”।
अनंत महादेवन निर्देशित और सीपी सुरेंद्रन द्वारा लिखी फिल्म “गौर हरि दास्तान” के पोस्टर पर यह लाइन आज़ादी के लिए लड़े हर क्रांतिकारी की आजाद भारत में अपनी पहचान और अपना हक पाने की कहानी है। यह कहानी सुनकर मुझे बटुकेश्वर दत्त की कहानी याद आ गई जिन्हें आजाद भारत में बेहद दरिद्रता और मुश्किल भरे हालातों की जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा और एक दिन ऐसे ही गुमनामी का सामना करते हुए वह संसार से रुखसत हो गए।
फ़िल्म की कहानी
कहानी शुरू होती है फ्लैशबैक के एक सीन से जहां पर हमें गौर हरिदास का बचपन देखने को मिलता है और हमें पता लगता है की वह अपने बचपन में महात्मा गांधी की बनाई ‘वानर सेना’ के लिए काम करते थे। इसके बाद कहानी वर्तमान में आती है और हमें गौर हरी दास ऑफिस दर ऑफिस अपने क्रांतिकारी होने का पहचान पत्र पाने की तलाश में दर बदर भटकते दिखाई देते हैं। उनके इस काम में राजीव सिंघल और अनीता नाम के दो पत्रकार उनकी सहायता में लग जाते हैं, लेकिन गौर हरिदास जी के पहचान पत्र पाने के इस सफर में मुश्किलें बहुत ज्यादा हैं।
कहानी ऐसी नहीं है जिसका अनुमान लगाने में दर्शकों को बहुत कठिनाई महसूस होगी लेकिन आज के संदर्भ में जहां हमारा देश भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई समेत कई सारी मुश्किलों से जूझ रहा है, तब ऐसी फिल्मों की बहुत ज्यादा जरूरत है। अनंत महादेवन का निर्देशन शानदार है। गौर हरि दास जी की जिंदगी को बड़े ही अच्छे ढंग से उन्होंने सिल्वर स्क्रीन पर उतारने का काम किया है।
फिल्म में काफी छोटी छोटी चीजें हैं, जो बताती है की फिल्म की कितनी सारी बारीकियों पर बड़ी ही मेहनत से काम किया गया है। जैसे कि मुंबई में बालासाहेब ठाकरे को काफी माना जाता था, इसलिए जिस टैक्सी में गौर हरि दास और उनकी बीवी सफर कर रहे होते हैं उस टैक्सी में भी ड्राइवर ने गाड़ी के बोनट पर बालासाहेब ठाकरे की फोटो लगाई होती है। इसके अलावा गौर हरि दास और एक बिचौलिए के बीच के डायलॉग्स, और आखिरी का एक और कमाल का सीन जिसमें गौर हरि दास जब एक नाले से निकल रहे पानी पर पैर रखने वाले होते हैं और उसमें भारत के तिरंगे की परछाई देखते हैं तो पैर पीछे हटा लेते हैं, यह कुछ ऐसे दृश्य हैं जिसे देखकर आप अनंत महादेवन के निर्देशन की तारीफों के कसीदे पढ़ने पर मजबूर हो जाएंगे।
बेहद सहरानीय अभिनय
बात करते हैं एक्टिंग की तो विनय पाठक ने गौर हरि दास जी के किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय किया है। जिस संजीदगी और ईमानदारी के साथ उन्होंने गौर हरी दास का किरदार निभाया है, वह सराहनीय है। एक सच्चे गांधीवादी होने के नाते गौर हरि दास जी के किरदार को आप कभी भी उग्र होते नहीं देखेंगे। एक जज्बाती पत्रकार, जो कि अपनी निजी जिंदगी से परेशान हैं और फेमिनिस्ट लड़कियों से नफरत करता है, के किरदार में रणवीर शौरी का अभिनय भी बहुत ही अच्छा है। साथी पत्रकार के तौर पर तनिष्ठा चटर्जी का अभिनय भी बढ़िया है। अहिरकर के किरदार में विपिन शर्मा विलेन के तौर पर अपना प्रभाव छोड़ते नजर आते हैं। उनके इस किरदार को देख कर फिल्म ‘कार्तिक कॉलिंग कार्तिक’ में निभाया गया उनका नकारात्मक किरदार याद आ जाता है।
गौर हरिदास जी की पत्नी के तौर पर कोंकणा सेन शर्मा के पास खास कुछ करने के लिए था नहीं, लेकिन वह जितने भी फ्रेम्स में नजर आई हैं, अपने किरदार के साथ न्याय करती हैं। उनकी और विनय पाठक की ऑनस्क्रीन केमिस्ट्री अच्छी लगती है।
भारत देश की नियति ही अजीब है। जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को आजाद कराने के लिए अपनी जान की बाज़ी तक लगा दी, उन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों को खुद की पहचान पाने के लिए भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ चुके भारत में संघर्ष करना पड़ रहा है। जब अंतिम फ्रेम्स में विनय पाठक की आंखों से आंसू निकलते हैं और वह अपनी रुदन आवाज में अंग्रेजों को सही बताते हैं, तो आपकी आंखें भी छलक उठती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या सचमुच हम अंग्रेजों द्वारा शासित हिंदुस्तान में ही सही थे जहां हमें कम से कम यह तो मालूम था कि दुश्मन कौन है।
कुछ अलग देखने की इच्छा रखते हैं, तो इस फिल्म से बढ़िया और कुछ नहीं।